सम्पूर्ण रामायण में कही भी भोग नहीं है.
केवल त्याग ही त्याग है.
चित्रकूट से लौटने के बाद भरत जी ने नंदीग्राम में आश्रम में रहते है. और वही से
राज्य का काम भी सँभालते है. राजगद्दी पे प्रभु श्री राम की चरण पादुका का रखकर
राज्य संचालन का आदेश शत्रुघ्न जी को दिया है. शत्रुघ्न जी उनके आदेश का पालन
करते हुए राज्य संचालन करते हैं.
त्याग
एक रात माता कौशिल्या जी अपने महल में सोई हुई थी, तभी उनकी नींद टूटी और उन्हें
महसूस हुवा की अपने महल की छत पे कोई चल रहा है, उन्हें चलने की आहट साफ साफ
सुनाई दे रही थी. उन्होंने आवाज लगाई… और पूछा कौन है छत पर…?
पता चला उपर शत्रुघ्न जी की पत्नी श्रुतिकीर्ति जी है…! उन्हें निचे बुलाया और अपने पास बैठने
को कहा…
श्रुतिकीर्ति जी माता कौशल्या को चरणों में प्रणाम कर के खडी रह गई.
माता कौशिल्या जी ने पूछा, पुत्री ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो…?
क्या नींद नहीं आ रही…? और शत्रुघ्न कहाँ है…?
श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आईं, माँ की छाती से लिपट गई और गोद में सिमट गईं
बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए…!
उफ…! कौशल्या जी का ह्रदय काँप गया…
मर्यादा
माता तुरंत आवाज लगाई, सेवक दौड़े आए, आधी रात ही पालकी तैयार हुई.
आज शत्रुघ्न जी की खोज होगी, माँ चली… पता है…. शत्रुघ्न जी कहाँ मिले…?
अयोध्या के जिस दरवाजे के बाहर भरत जी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं.
उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला हैं, उसी शिला पर, अपनी बाँह का
तकिया बनाकर लेटे मिले.
माँ शत्रुघ्न सिराहने बैठ गईं, और शत्रुघ्न के बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी ने
आँखें खोलीं, माँ…!
झटसे उठे, चरणों में गिरे, माँ…! आपने क्यों कष्ट किया…? मुझे ही बुलवा लिया होता
माँ ने पूछा…. पुत्र शत्रुघ्न…! यहाँ क्यों…?
शत्रुघ्न जी गला भर आया और वो रोने लगे. रोते रोते बोले, माँ…! भैया राम जी पिताजी की
आज्ञा से वन में चले गए…! भैया लक्ष्मण जी उनके पीछे चले गए…! भैया भरत जी भी
नंदिग्राम में हैं…! तो क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, परमात्माने ने मेरे ही लिए
बनाए हैं…?
माता कौशल्या जी निरुत्तर रह गईं…!
आदर्श
यह रामकथा हैं, भाई…! यह भोग की नहीं, त्याग की कथा हैं. यहाँ त्याग की प्रतियोगिता
चल रही हैं… और सभी के सभी प्रथम ही हैं, कोई पीछे नहीं रहा ही नहीं…!
प्रेम और त्याग, चारो भाइयों का एक दूसरे के प्रति आश्चर्यजनक और अलौकिक है.
जब प्रभु श्री राम को चौदह वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी, माँ सीता ने भी सहर्ष
वनवास स्वीकार कर लिया…! और बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मण
जी कैसे राम जी से दूर हो जाते…!
माता सुमित्रा से तो उन्होंने वन जाने की अनुमति ले ली थी… लेकीन जब पत्नी उर्मिला के
कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो, सोच रहे थे कि, माँ ने तो अनुमति दे दी है…
लेकिन उर्मिला को मै कैसे समझाऊंगा…!
उससे क्या कहूंगा…! यहीं सोच विचार करते – करते जब लक्ष्मण जी जैसे ही अपने
कक्ष में पहुंचे… तो देखा की उर्मिला जी पहले से ही आरती की थाल लेकर खड़ी थीं
और बोलीं… “आप मेरी चिंता छोड़कर प्रभु की सेवा में वन को जाओ. मैं आपको
नहीं रोकूँगीं. मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा ना आये, इसलिये मै साथ जाने की
जिद्द भी नहीं करूंगी ”
सम्पूर्ण रामायण में कही भी भोग नहीं है
लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था… लेकीन उनके कुछ कहने से पहले ही
उर्मिला जी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया. वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है.
पति संकोच में पड़े, उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से
बाहर कर दे…!
लक्ष्मण जी तो चले गये लेकिन… इन चौदह वर्ष तक उर्मिला ने भी एक तपस्विनी की
भांति कठोर तप किया. वन में लक्ष्मण जी भैया – भाभी की सेवा में कभी सोये नहीं…!
लेकिन उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जाग जागकर
उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया.
जब मेघनाद से युद्ध करते हुए, लक्ष्मण को शक्ति लग जाती है और हनुमान जी उनके लिये
संजीवनी का पहाड़ लेकर लौट रहे होते हैं, तब बीच में अयोध्या में भरत जी उन्हें राक्षस
समझकर बाण मारते हैं और हनुमान जी राम राम कहते हुए गिर जाते हैं…
तब हनुमान जी सारा वृत्तांत सुनाते हैं की, सीता जी को
रावण ले गया… और लक्ष्मण जी मूर्छित हैं…!
यह सुनते ही कौशल्या जी कहती हैं कि राम को कहना कि लक्ष्मण के बिना अयोध्या में
पैर भी मत रखना, राम वन में ही रहे… माता सुमित्रा कहती हैं की राम से कहना कि
कोई बात नहीं… अभी शत्रुघ्न है…
मैं उसे भेज दूंगी. मेरे दोनों पुत्र राम सेवा के लिये ही तो जन्मे हैं. माताओं का प्रेम देखकर
हनुमान जी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी. लेकीन जब उन्होंने उर्मिला जी को देखा तो
सोचने लगे कि… यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं…? क्या इन्हें अपनी पति के
प्राणों की कोई चिंता नहीं…?
हनुमान जी पूछते हैं… देवी…! आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है…?
आपके पति के प्राण संकट में हैं… सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक
बुझ जायेगा…!
उर्मिला जी ने जो उत्तर दिया… वो सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी
वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा.
उर्मिला जी बोलीं… मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता. और बात रही
सूर्योदय की… तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में ही विश्राम कर लीजिये,
क्योंकि… जब तक वहां आप पहुचेंगे नहीं.. तब तक सूर्य उदित हो ही नहीं सकता.
सम्पूर्ण रामायण में कही भी भोग नहीं है
आपने कहा की… प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं…
जो प्रभु श्री राम की गोदी में लेटा हो, उसे काल छू भी नहीं सकता.
यह तो वो दोनों लीला कर रहे हैं…!
जब से मेरे पति से वन गये हैं, तब से सोये ही नहीं हैं, उन्होंने ना सोने का प्रण लिया था.
इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं. और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा
विश्राम ज्यादा हो गया.
वे उठ जायेंगे…! और शक्ति तो मेरे पति को लगी ही नहीं है…! वास्तव में
शक्ति तो श्री राम जी को लगी है, मेरे पति की हर श्वास में राम हैं.
हर धड़कन में राम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद बूंद में राम हैं,
और जब उनके शरीर और आत्मा में, सिर्फ राम, ही राम है…!
तो शक्ति राम जी को ही लगी है…! और दर्द राम जी को ही हो रहा है…!
इसलिये हनुमान जी आप निश्चिन्त होकर जाएँ. सूर्य उदित होगा नहीं…!
राम राज्य की नींव जनक की बेटियां ही थीं…!
कभी सीता तो कभी उर्मिला…!
प्रभु श्री राम ने तो केवल राम राज्य का कलश स्थापित किया…
लेकीन वास्तव में राम राज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समर्पण , बलिदान से ही आया.
जय श्री राम